गुरुवार, 6 मार्च 2014

"निराशा"

आ समन्दर के किनारे पथिक प्यासा रह गया,
था गरल से जल भरा होकर रुआंसा रह गया।

था सफर बाकि बहुत मजिल अभी भी दूर थी,
हो गया बढना कठिन घिर कर कुहासा रह गया।

लग रहे नारे हजारो छप रही रोज लाखो खबर,
गौर से जब देखा तो बन तमाशा रह गया।

एक बुत गढ ने लगी अनजान में ही मगर,
हादसा ऐसा हुआ की वह बिन तराशा रह गया।

छोड़ कर आशा किसी का चल पड़ा बेचारा"राज",
आज वादा  लोगो का बस दिलासा रह गया।


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14 टिप्‍पणियां:

  1. एक बुत गढ ने लगी अनजान में ही मगर,
    हादसा ऐसा हुआ की वह बिन तराशा रह गया।

    वाह ! बहुत सुंदर सृजन...!

    RECENT POST - पुरानी होली.

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  2. बहुत सुंदर प्रस्तुति.
    इस पोस्ट की चर्चा, शनिवार, दिनांक :- 08/03/2014 को "जादू है आवाज में":चर्चा मंच :चर्चा अंक :1545 पर.

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। । होली की हार्दिक बधाई।

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  4. लग रहे नारे हजारो छप रही रोज लाखो खबर,
    गौर से जब देखा तो बन तमाशा रह गया।..................आज वादा लोगों का बस दिलासा रह गया। सामयिक उथल-पुथल के बाद एकान्‍त आदमी के मन की छटपटाहट को बखूबी उकेरा है।

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  5. तन्हाई का क्या खूब नक्शा लगता है।

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  6. छोड़ कर आशा किसी का चल पड़ा बेचारा"राज",
    आज वादा लोगो का बस दिलासा रह गया।
    सुंदर वर्णन ............

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  7. बहुत ही भावपूर्ण गजल,सुंदर वर्णन

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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